Thursday, December 31, 2020

 नए साल को नज़र

कितने जज़्बातों को ज़ब्त कर लेते हो दिल में
कितनी फ़िज़ूल बातों को देर तक हवा देते हो
तुम मुद्दत से मुझे देख-सुन-परख रहे हो,
मुहब्बत कब करोगे, जुनून-सा जगा देते हो
कुछ बातें हैं जो बताई नहीं अब तक तुमको
मेरी हर बात दूसरों को जो बता देते हो
जितने तपते हो, उतने भीगते चले जाते हो
गर्द हो या गर्दिश, हाल-ए-दीवाना बना लेते हो
मैं तुम्हें मिल भी जाऊँ तो क्या हासिल इसमें
अपना या बेगाना, सबको यकसी सज़ा देते हो
फूलों की सेज हो या फिर काँटों का बिछौना
थपकियों की शिफ़ा से, नींद मुख्तसर ही देते हो
दुआ करता हूँ फिर भी तुम्हारे लिए ख़ुदा से,
एक तुम ही तो हो जो उम्मीद जगा देते हो
Pankaj Dixit, Mamta Ojha and 19 others
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Tuesday, January 21, 2020

डूबता है,उबरता है, पार पाता है
इन दिनों मन मेरा कश्ती बन जाता है
रिमझिम फुहारों से बचना चाहता है
तेज बौछारों में भीगना चाहता है
आ न जाए ख्वाब कोई बंद आंखों में
रात ,बिस्तर छोड़, सोफे पर बिताता है
पौ फटे का सूरज देखना है बस
ताख-आलों में रखा हर दीपक बुझाता है
कहीं बदल रहा है मेरी खातिर कुछ
ये राज वो अपने से भी छिपाता है

Sunday, March 4, 2018

प्रेम को इम्तिहां न बनाओ

जिन दिनों बसन्त
छाया होता था फ़िज़ाओं में
उसी वक्त क्यों कराते हो इम्तिहान
यह मानवता के विरुद्ध षड़यंत्र है
जब प्रेम बरसाती है पूरी सृष्टि
 धकेलना एक पूरी पीढ़ी को आजमाइश में
एक गंभीर किस्म का पाप है
परीक्षाएं मार्च नहीं
जनवरी में होनी चाहिए
वक्त के बदलते ही
परिणाम भी बदल जाएंगे
प्रश्नों से घबरायेगी नहीं तब तरूणाई
उत्तर देगी बखूबी और
उसके बाद बसंत के गीत गायेगी
......
तुम टाल न देना इसे
केवल कविता समझकर
(जैसे टालते रहे हो प्रेम को
अपने -सबके जीवन से)
नहीं समझोगे तो इसे
अखबारी भाषा मे भी दुहराऊंगा
(शायद तब ही )
तुम्हारी समझ मे आऊंगा

Monday, October 19, 2015

जिंदगी का हर रिक्त

एक दिन पूरा अंतरिक्ष 
उजास से भर जाएगा
जिंदगी का हर रिक्त
प्यार से भर जाएगा
...........
कोई तारा दूर है बहुत जो
अपनी किरणों को लिए
चकाचौंध करता हुआ
पास में आ जाएगा
............
एक दिन मैं तुम्हारे
करीब आकर तुममे
विलीन हो जाऊंगा
एक दिन देखना
हमको जुदा
कोई नहीं कर पाएगा

पिता

वो क्षुद्र पौधों को 
कद्दावर बनाते थे
हम बोन्साई बनाने की 
योजना बनाते थे
................
वो महामानव थे
हम लघुमानवों की बात पर
मुस्कराते थे

एक लड़की

एक लड़की है
पास ही, मगर दूर -सी
उसे जानता हूँ, नहीं भी
सुघड़ ,मगर मज़दूर-सी
उसे मानता हूँ, नहीं भी
सरल ,मगर मग़रूर - सी
उसे देखता हूँ ,नहीं भी
सरस ,मगर बीहड़-सी
उसे सींचता हूँ ,नहीं भी
देह, मगर विवेक -सी
उसे मांजता हूँ ,नहीं भी
.............
वो लड़की नहीं
उधेड़बुन है

एक दोपहर शाम-सी

एक दोपहर शाम-सी
ग़ज़ल के उन्मान-सी
कहीं सांवली कही सुरमई 
राधा के घनश्याम सी
जितनी ऊँची उतनी घातक
जंगल के मचान -सी
ज्यादा साफ ज्यादा उजली
शादी के मेहमान-सी
मुझे पुकारे ताने मारे
जाते की मुस्कान सी

बोतल ही पूरा सामान

वो कहते हैं
किसी शख्स को 
नज़्म में पूरा का पूरा 
नहीं ढाला जाता है
थोड़ी सी फंतासी और रुमानियत
मिला अदब बनाया जाता है
..........
मेरे पास एक
जीता जागता इंसान है
जो पूरा का पूरा अदबी मक़ाम है
नज़्म ग़ज़ल औ फसानों का
यूँ कहो किताबो की मुस्कान है
........
वो पियें कुछ मिलाकर
उनकी ख़ुशी
मेरी तो बोतल ही पूरा सामान है

मुग्धता का जीवन क्षण भर

कोंपल की फूटन पल भर
कलियों का बचपन पल भर
फूलों का यौवन पल भर
शाख की लचकन पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
सूरज का उगना पल भर
सूरज का ढलना पल भर
तारों का खिलना पल भर
तारों का ढलना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी का आना पल भर
किसी का रुकना पल भर
जीवन का जीना पल भर
किसी का जाना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी का लिखना पल भर
किसी का गाना पल भर
मुस्कराना किसी का पल भर
किसी का खिलखिलाना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर
किसी की शामें पल भर
किसी की बातें पल भर
किसी का चमकना पल भर
किसी का महकना पल भर
मुग्धता का जीवन क्षण भर

अयाचित आशीर्वाद


कई बार
ऐसे उतरती है कविता
जैसे प्रभात में 
सूरज किरण उतरती है
हर ज़र्रे को कर देती है रोशन
हर रहस्यानुभूति पा जाती है
शब्द
आत्मा अभिव्यक्त हो जाती है
तृप्ति पाती है
..............
कई बार
यूँ भी होता है
कुछ छूता है
दिल-दिमाग को
मगर
पकड़ में नहीं आता
जैसे मुँह पर आ जाए
मकड़ी का जाला
कैद का अनुभव तो नहीं
मगर मुक्ति भी नहीं
...........
कविता लिखना
कभी आनंद का
कभी बहुत जोखिम का काम है
लिखना ,लिख पाना
अयाचित आशीर्वाद का
परिणाम है 

बंद मुट्ठी अंजुरी हो जाना चाहती है

ढीली कर दी जाती है 
एक दिन
अनायास ही
सम्पूर्ण ताकत से 
बंद की गई मुट्ठी
इसलिए नहीं कि
चुक गई है शक्ति
याकि क्षीण हो गई है शिराएँ
बल्कि
इसलिए कि
एक दुर्निवार आतंरिक पुकार
के आगे झुकना पड़ता है सभी को
..........
हर बंद मुट्ठी
अंजुरी हो जाना चाहती है
एक दिन

विज्ञापन

शहर.....
विज्ञापन बोर्ड के आगे आते हैं
बौने कर दो पेड़
............
विज्ञापन था नगर निगम का 
कहता था
पूर्वजों की याद में
फलां जगह पर
जरूर लगाएं पेड़

दूसरी ज़बान को भी समझो - सराहो

विचार 
किसी भाषा के गुलाम नहीं
लेकिन अपनी भाषा में 
सब कुछ कहना भी आसान नहीं
अपनी भाषा में गाओ -गुनगुनाओ
मगर दूसरी ज़बान को भी
समझो - सराहो
दिल बड़ा हो तो
तमाम अनुभूतियाँ
दामन थाम लेती हैं
क्योकि सारी नदियाँ
समंदर में विराम लेती है

समय


कभी सघन कभी विरल
कभी सुनहरा कभी बदरंग
कभी स्याह कभी सतरंग
मैं रंग की नहीं 
समय की बात कर रहा हूँ
कभी सापेक्ष कभी निरपेक्ष
कभी घोर अँधेरे सा
कभी रोशन किरण सा
कभी रेशमी मुलायम
कभी सख्त फौलाद सा
अज़ीब गोरखधंधा है समय
कभी स्वर्ण मृग बन जाता है
कभी अमृत कलश बिंधवाता है
कभी लड़ता है युद्ध
कभी पलायन
कभी जल समाधि दिलवाता है
कभी बँट जाता है युगों में
कभी सतत् चलता जाता है
कभी हारता है खुद से
कभी सबको हराता जाता है
अजीब !अदभुत ! अपरिवर्तनीय !
समय !समय !! समय !!!

उतरती है रचना

देखो ! उतरने को है 
कविता
कवि अनमना हो रहा है
भीड़ के बीच भी 
तनहा हो रहा है
..............
उतरती है रचना
बेकली बढ़ती जाती है
कला अपने माध्यम को
कितना तपाती है !

अब कबीर नहीं खड़ा

दौर है बड़ी विडंबनाओं का
वैश्यों का और वेश्याओं का
हर ओर लूट -सी मची है
शोर मुनाफाखोर व्यवस्थाओं का
बाज़ार में अब कबीर नहीं खड़ा
चौराहों पर कब्ज़ा राधे माँओं का
हमाम में नंगों का जुमला चला गया
अब वक्त है सरेआम नग्नताओं का
जो सत् था शुभ था मंगल था ,बीत गया
अब राज्य है अवसरवादी विद्रूपताओं का

हँसती है तो झरते फूल

फूलों से नाता है उसका
रंगों से उसे प्यार है
देर रात तक जागकर
अलसुबह उठने से बेज़ार है
आवाज़ों से उसे मुहब्बत
साज़ों से इकरार है
दिल का रोग लगा उसको
इश्क में गिरफ्तार है
बातों में उसकी जादू -सा
कलम की सरकार है
हँसती है तो झरते फूल
रोना भी बारम्बार है
पहाड़ों से उसे आशिकी
समंदर से भी प्यार है

सतही

मंच से कहने से 
हर चीज़ 
नहीं हो जाती सही
बल्कि
अंतर हो कहने-करने में
कथनी कुछ और हो
कुछ अलग हो करनी
तो भव्य हो जितना
अभिव्यक्ति का ढंग
मर्म तक जाते- जाते
हर शै हो जाती है सतही

असली -नकली

बचपन में जो बातें
मोहक लगती थी वो नकली थी
और जो उपेक्षणीय थी वो असली थी
बहुत बाद में जाना
नकली था जो
असली लगता था वो
जो असली था
हम सब उस पर हँसते थे
.....................
बहुत बाद में जाना
असली चीजें चमकती नहीं
नकली टिकती नहीं
.........
जान लिया मैंने सच
बड़े होकर
कुछ अब भी बच्चे हैं
बड़े होकर

Monday, April 13, 2015

क़यामत

एक दिन 
मिट्टी हो जाता है
हर ठोस
पानी हो जाता है
हर द्रव
हवा हो जाती है
हर खुशबु
........
गोया कि
हर शै फ़ना होकर
अपने अस्ल में हो जाती है तब्दील
........
वक्त और हालात
के हाथों
एक दिन-देखना-
मैं भी ख़ुदा हो जाऊंगा

तासीर

एक बूँद गिरती है
छन्न-से
गर्म तवे पर
भाप बन जाती है
वही गिरती है
तप्त जमीं पर
अंदर रिसती चली जाती है
गिरती है फूलों पर
शबनम बन जाती है
...........
एक ही
घटना
किसी को
गुस्सा
किसी को
नेह
किसी को
प्यार
सिखाती है
.......
जो जिस
धातु से बना है
जिंदगी
उसे वैसा ही चमकाती है

सतह पर रहो !!!

स्व.कैलाश वाजपेयी से प्रथम पंक्ति उधार लेकर सम्पूर्ण कविता उन्हें ही समर्पित....
तह तक न जाओ बच्चे
एक दिन अकेले पड़ जाओगे
युद्ध लड़ो या रिश्ते बनाओ
तह तक न जाना कभी
वहाँ हर चीज उलटी-उलझी-अलग पाओगे
चीर फाड़ करोगे
हर शै को विद्रूप पाओगे
छूट जाएगी सरलता
सहज नहीं रह पाओगे
बढ़ जायेगी उलझने
संजीदा हो जाओगे
क्या मिलेगा गहराई में
कीच में सन जाओगे
.............
सतह पर रहो
सही कहलाओगे
व्यर्थ समय-शक्ति-पुरुषार्थ
गवाओगे,क्या पाओगे
जो हैं अभी साथ
उनसे भी छूट जाओगे
दूरियां बढ़ाओगे
सतह पर बिखरा पड़ा है कितना ज्ञान
उम्र बीत जाएगी
तब भी न बटोर पाओगे
एक सच की खोज में
क्यों अपना जीवन लगाओगे
जूनून में पड़ राज-पाट,स्त्री,संतति
गवाओगे
जो कभी मिल भी गया सत्य
किसको बताओगे
सतह पर रहना सीखो
प्रबुद्ध कहलाओगे

इस साल लंबा खिंचा बसंत है

इस साल लंबा खिंचा बसंत है
झरते रहे 
पीले पत्ते झर-झर
फूटती रही 
कोंपले रंगारंग
कोयल कूकती रही
शाखों पर
तितलियाँ
मंडराती रही फूलों पर
ठंडी-गर्म हवाएं
चली सुबहो शाम
पड़ा दो- एक बार
तेज़ पानी भी
आती रही सौंधी-सौंधी गंध है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है
टेसू फूल रहा लाल-लाल
खुला-खुला दिन
दोपहर में चेहरा हो रहा लाल
शाम तक आते -आते
मीठी-सी हो जाएं हवाएं
शब मालवा की
मानो सुगंध है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है
कभी धूप कभी बारिश
दोनों तेज -तेजतर
वर्चस्व की लड़ाई हो
और हो रही भिड़ंत है
इस साल लंबा खिंचा बसंत है

Tuesday, January 27, 2015

कल रात बारिश हुई थी

कल रात बारिश हुई थी और तुम सोती रहीं
तुमने जगाया ही नहीं मैं नींद में रोती रही
पूरी शब जागने को पहले कब मुझे गुरेज़ था
थकी-सी रहती हूँ इन दिनों नींद भर सोती रही
सोने-से चेहरे पे जब चाँदनी काबिज़ हुई
दिन भर की गर्द को दूध से धोती रही
बादलों की ओट में था चाँद सरे शाम से
बिजलियों से अठखेलियां रात भर होती रही
कोई उसके दर्द को जान न ले मुकम्मल
किताब को चेहरे पे रख कर वो मुस्लस्सल रोती रही
सबके होठों पे खिलें फूल खुशियों के सदा
इस दुआ के बीज वो ख़्वाब में सींचती -बोती रही

सांवली दुनिया ही क्यों जादू जगाती है

कुछ तो होता है
कुहासे में
जो हर शै खूबसूरत नज़र आती है
धुन्धलाया-सा होता है हर मंज़र
एक अज़ीब-सी हूक उठती जाती है
जैसे पिछले जनम की याद आती है
बस इतनी -ऐसी -ही हो दुनिया
हसरत ये पर फैलाती है
नज़रों में भर लेने को ये नज़ारा
कशिश बार बार आती है
................................

रंगो से भरी है ये दुनिया
जाने फिर सांवली दुनिया ही क्यों जादू जगाती है

Thursday, January 22, 2015

कमीने थे दोस्त(जग्गी,युनुस,आजम,मरहूम रशीद, दिनेश,गोविन्द,मिंडा राजू,गार्ड राजू,किशोर,पप्प्या,कमलेश और मोदा को)

चिकोटी काटते थे ज़ोर की
घूंसा लगाते थे
घुटनो के पीछे वार कर घुटनों से
खुद ही सहारा बन जाते थे
कुछ एक लगाते थे चपत सर पे
छिप जाते थे
आँखें मूंद लेते थे पीछे से
कुछ सीधे आकर टकराते थे
जिस किसी से आँख लड़े
जल कर ,सरेआम उसे भाभी बुलाते थे
..................
बरतते थे दुश्मनों की तरह
साले अपने आपको फिर भी दोस्त बतलाते थे

Sunday, November 2, 2014

कुछ हथेली पे था

सिरहाने उगता है, पैताने डूब जाता है
सूरज के मुख्तसर से सफर में सब फ़ना हो जाता है
जाने वो मेरे इर्द-गिर्द है, या मैं उसके
उसकी रोजमर्रा में, मेरा दिन ख़ाक हो जाता है
ख़्वाहिशें उगती है, उफ़क पे चाँद-तारों की तरह
सुबह होते ही सितारा डूब जाता है
कुछ हथेली पे था रेत की तरह
बंद करती हूँ मुट्ठी तो फिसल जाता है
चंद कोंपलों के बाद, सब बंजर जमीन की तरह
तेरा ख़याल दूर तक पसरा, सहरा हुआ जाता है

Wednesday, September 10, 2014

दोस्तों को....



साईकिल की
कठोर सीट से
घिस जाते थे
पेंट सबके
थिगलियाँ लगवाते थे
दर्जी दोस्त से

बेलबाटम
सड़क बुहार कर
तार-तार न हो
पुरानी चेन सिलवा लेते थे नीचे

खेल में फूटे होते थे
घुटने, पंजे,कंधे
लंगड़ाकर
चलते थे अक्सर सभी

कुहनियाँ
कंचो के खेल में हार से
लहूलुहान रहती थीं
कपड़ों पर
पड़े रहते थे दाग़
कपड़े की गेंद की मार से
..................
लड़-हार कर ही लौटते थे
घर हम सब
बचपन में,लेकिन
हम सब विश्वविजेता थे

Friday, August 8, 2014

बोझिल पलकें...



बारिश
हो या न हो
इन दिनों
हम दोनों को सोने नहीं देती
.......
जब नहीं होती
तो रातों को नींद नहीं आती तुम्हें
देखो नामो निशान नहीं है बादलों का
अधूरी नींद से उठाती-दिखाती हो मुझे
मैं कुनमुनाता-चिड़चिड़ाता हूँ
सो जाओ, हो जाएगी
और जब बरसता है पानी
मैं उठ जाता हूँ और
उठाता हूँ तुम्हें
लो देखो, बरस रहे हैं बादल
तुम खुश हो जाती हो, जाग जाती हो
...........
इन दिनों अधखुली-खुमारभरी
रहती हैं पलकें हमारी
...........
हमारी बोझिल पलकें
मोहब्बत ही नहीं
प्रकारांतर से
फिक्र-ओ-दुनिया भी जतलाती है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।